एक दफा मैं, खुद की होना चाहती हु ।।
बहुत हंस ली मैं , कुछ देर रोना चाहती हु। बहुत थक चुकी हु , अब कुछ देर सोना चाहती हु।। उस अंचल से लिपट कर , रोना चाहती हु , उस गोद में सर रख, सोना चाहती हु। उस ममता को तरस रही हु हर घडी , कुछ देर खुद में मैं, खोना चाहती हु।। सब अधुरा है लगता , नदिया भी सागर भी। में खुद को खुद में, भिगोना चाहती हु , बहुत थक गई हु , साहिल पर रहकर , दरिया की लहरों में खोना चाहती हु। हैं एक सागर, गमो का भी अन्दर , मैं खुद को उसमे, डुबोना चाहती हु। सब की हुई मैं आज और अब तक , एक दफा मैं, खुद की होना चाहती हु।।